Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


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आज साहित्य-परिषद् ने निमंत्रित किया है। कल 'लिबरल' एसोसिएशन दावत देगा। परसों पारसी समाज का नम्बर है। उसी दिन यूनियन क्लब की ओर से पार्टी दी जाएगी। मुझे स्वप्न में भी आशा न थी कि मैं इतना जल्द बड़ा आदमी हो जाऊँगा। मैं ख्याति और सम्मान के निंदकों में नहीं हूँ। इसके सिवा गुणियों को और क्या पुरस्कार मिल सकता है? मुझे कब मालूम हुआ कि मैं क्या करने के लिए संसार में आया हूँ? मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है? अब तक भ्रम में पड़ा हुआ था। अब से मेरे जीवन का मिशन होगा प्राच्य और पाश्चात्य को प्रेम-सूत्र में बाँधना, पारस्परिक द्वंद्व को मिटाना और दोनों में समान भावों को जागृत करना। मैं यही व्रत धारण करूँगा। पूर्व ने किसी जमाने में पश्चिम को धर्म का मार्ग दिखाया था; अब उसे प्रेम का शब्द सुनाएगा, प्रेम का पथ दिखाएगा। मेरी कविताओं का पहला संग्रह मैकमिलन कम्पनी द्वारा शीघ्र प्रकाशित होगा। गवर्नर महोदय मेरी उन कविताओं की भूमिका लिखेंगे। इस संग्रह के लिए प्रकाशकों ने मुझे चालीस हजार रुपये दिए हैं। इच्छा तो यही थी कि ये सब रुपये अपनी प्यारी संस्था को भेंट करता; पर विचार हो रहा है कि अमेरिका की सैर भी करूँ। इसलिए इस समय जो कुछ भेजता हूँ, उसे स्वीकार कीजिए। मैंने अपने कर्तव्य का पालन किया है। इसलिए धन्यवाद की आशा नहीं रखता। हाँ, इतना निवेदन करना आवश्यक समझता हूँ कि आपको सेवा के उच्चादर्शों का पालन करना चाहिए, और राजनीतिक परिस्थितियों से विरक्त होकर 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के प्रचार को अपना लक्ष्य बनाना चाहिए। मेरे व्याख्यानों की रिपोर्ट आपको यहाँ के समाचार-पत्रों में मिलेगी। आप देखेंगे कि मेरे राजनीतिक विचारों में कितना अंतर हो गया है। मैं अब स्वदेशी नहीं, सर्वदेशीय हूँ, अखिल संसार मेरा स्वदेश है; प्राणिमात्र से मेरा बंधुत्व है और भौगोलिक तथा जातीय सीमाओं को मिटाना मेरे जीवन का उद्देश्य है। प्रार्थना कीजिए कि अमेरिका से सकुशल लौट आऊँ।

आपका सच्चा बंधु
प्रभु सेवक
सोफिया ने पत्र मेज पर रख दिया और गम्भीर भाव से बोली-इसके दोनों ही अर्थ हो सकते हैं, आत्मिक उत्थान या पतन। मैं तो पतन ही समझती हूँ।
विनय-क्यों? उत्थान क्यों नहीं?
सोफिया-इसलिए कि प्रभु सेवक की आत्मा शृंगारप्रिय है। वह कभी स्थिर चित्ता नहीं रहे। जो प्राणी सम्मान से इतना फूल उठता है, वह उपेक्षा से इतना ही हताश भी हो जाएगा।
विनय-यह कोई बात नहीं। कदाचित् मैं भी इसी तरह फूल उठता। यह तो बिलकुल स्वाभाविक है। यहाँ उनकी क्या कद्र हुई? मरते दम तक गुमनाम पड़े रहते।
इंद्रदत्ता-जब हमारे काम के नहीं रहे, तो प्रसिध्द हुआ करें। ऐसे विश्व-प्रेमियों से कभी किसी का उपकार न हुआ है, न होगा। जिसमें अपना नहीं, उसमें पराया क्या होगा?
सोफिया-सार्वदेशिकता हमारे कई कवियों को ले डूबी, इन्हें भी ले डूबेगी। इनका होना, न होना हमारे लिए दोनों बराबर है; बल्कि मुझे तो अब इनसे हानि पहुँचने की शंका है। मैं जाकर अभी इस पत्र का जवाब लिखती हूँ।
यह कहते हुए सोफिया वह पत्र हाथ में लिए हुए अपने कमरे में चली गई। विनय ने कहा-क्या करूँ, रुपये वापस कर दूँ।
इंद्रदत्ता-रुपये क्यों वापस करोगे? उन्होंने कोई शर्त तो की नहीं है! मित्रोचित सलाह दी है और बहुत अच्छी सलाह दी हैं हमारा भी तो वही उद्देश्य है। अंतर केवल इतना है कि वह समता के बिना ही बंधुत्व का प्रचार करना चाहते हैं, हम बंधुत्व के लिए समता को आवश्यक समझते हैं।
विनय-यों क्यों नहीं कहते कि बंधुत्व समता पर ही स्थित है?
इंद्रदत्ता-सोफिया देवी खूब खबर लेंगी।
विनय-अच्छा, अभी रुपये रखे लेता हूँ, पीछे देखा जाएगा।
इंद्रदत्ता-दो-चार ऐसे ही मित्र और मिल जाएँ, तो हमारा काम चल निकले।
विनय-सोफिया का ड्रामा खेलने की सलाह कैसी है?
इंद्रदत्ता-क्या पूछना, उनका अभिनय देखकर लोग दंग रह जाएँगे।
विनय-तुम मेरी जगह होते, तो उसे स्टेज पर लाना पसंद करते?
इंद्रदत्ता-पेशा समझकर तो नहीं, लेकिन परोपकार के लिए स्टेज पर लाने में शायद मुझे आपत्तिा न होगी।
विनय-तो तुम मुझसे कहीं ज्यादा उदार हो। मैं तो इसे किसी हालत में पसंद न करूँगा। हाँ, यह तो बताओ, सोफिया आजकल कुछ उदास मालूम होती है! कल इसने मुझसे जो बातें की, वे बहुत निराशाजनक थीं। उसको भय है कि उसी के कारण रियासत का यह हाल हुआ है। माताजी तो उस पर जान देती हैं, पर वह उनसे दूर भागती है। फिर वही आधयात्मिक बातें करती है, जिनका आशय आज तक मेरी समझ में नहीं आया-मैं तुम्हारे पाँव की बेड़ी नहीं बनना चाहती, मेरे लिए केवल तुम्हारी स्नेह-दृष्टि काफी है, और जाने क्या-क्या। और मेरा यह हाल है कि घंटे-भर भी उसे न देखूँ, तो चित्ता विकल हो जाता है।
इतने में मोटर की आवाज आई और एक क्षण में इंदु आ पहुँची।
इंद्रदत्ता-आइए, इंदुरानी, आइए। आप ही का इंतजार था।
इंदु-झूठे हो, मेरी इस वक्त जरा भी चर्चा न थी, रुपये की चिंता में पड़े हुए हो।
इंद्रदत्ता-तो मालूम होता है, आप कुछ लाई हैं। लाइए, वास्तव में हम लोग बहुत चिंतित हो रहे थे।
इंदु-मुझसे माँगते हो? मेरा हाल जानकर भी? एक बार चंदा देकर हमेशा के लिए सीख गई। (विनय से) सोफिया कहाँ है? अम्माँजी तो अब राजी हैं न?
विनय-किसी की दिल की बात कोई क्या जाने।
इंदु-मैं तो समझती हूँ अम्माँजी राजी भी हो जाएँ, तो भी तुम सोफी को न पाओगे। तुम्हें इन बातों से दु:ख तो अवश्य होगा; लेकिन किसी आघात के लिए पहले से तैयार रहना इससे कहीं अच्छा है कि वह आकस्मिक रीति से सिर पर आ पड़े।
विनय ने आँसू पीते हुए कहा-मुझे भी कुछ ऐसा ही अनुमान होता है।
इंदु-सोफिया कल मुझसे मिलने गई थी। उसकी बातों ने उसे भी रुलाया और मुझे भी। बड़े धर्मसंकट में पड़ी हुई है। न तुम्हें निराश करना चाहती है, न माताजी को अप्रसन्न करना चाहती है। न जाने क्यों उसे अब भी संदेह है कि माताजी उसे अपनी वधू नहीं बनाना चाहतीं। मैं समझती हूँ कि यह केवल उसका भ्रम है, वह स्वयं अपने मन के रहस्य को नहीं समझती। वह स्त्री नहीं है, केवल एक कल्पना है। भावों और आकांक्षाओं से भरी हुई। तुम उसका रसास्वादन कर सकते हो, पर उसे अनुभव नहीं कर सकते, उसे प्रत्यक्ष नहीं देख सकते। कवि अपने अंतरतम भावों को व्यक्त नहीं कर सकता। वाणी में इतना सामर्थ्य ही नहीं। सोफिया वही कवि की अंतर्तम भावना है।
इंद्रदत्ता-और आपकी यह सब बातें भी कोरी कवि-कल्पना हैं। सोफिया न कवि-कल्पना है और न कोई गुप्त रहस्य; न देवी है न देवता। न अप्सरा है न परी। जैसी अन्य स्त्रियाँ होती हैं, वैसी ही एक स्त्री वह भी है, वही उसके भाव हैं, वही उसके विचार हैं। आप लोगों ने कभी विवाह की तैयारी की, कोई भी ऐसी बात की, जिससे मालूम हो कि आप लोग विवाह के लिए उत्सुक हैं? तो जब आप लोग स्वयं उदासीन हो रहे हैं, तो उसे क्या गरज पड़ी हुई है कि इसकी चर्चा करती फिरे। मैं तो अक्खड़ आदमी हूँ। उसे लाख विनय से प्रेम हो, पर अपने मुँह से तो विवाह की बात न कहेगी। आप लोग वही चाहते हैं, जो किसी तरह नहीं हो सकता। इसलिए अपनी लाज की रक्षा करने को उसने यही युक्ति निकाल रखी है। आप लोग तैयारियाँ कीजिए, फिर उसकी ओर से आपत्तिा हो, तो अलबत्ता उससे शिकायत हो सकती है। जब देखती है,आप लोग स्वयं धुकुर-पुकुर कर रहे हैं, तो वह भी इन युक्तियों से अपनी आबरू बचाती है।
इंदु-ऐसा कहीं भूलकर भी न करना, नहीं तो वह इस घर में भी न रहेगी।
इतने में सोफिया वह पत्र लिए हुए आती दिखाई दी, जो उसने प्रभु सेवक के नाम लिखा था। इंदु ने बात पलट दी, और बोली-तुम लोगों को तो अभी खबर न होगी, मि. सेवक को पाँड़ेपुर मिल गया।
सोफिया ने इंदु को गले मिलते हुए पूछा-पापा वह गाँव लेकर क्या करेंगे?
इंदु-अभी तुम्हें मालूम ही नहीं? वह मुहल्ला खुदवाकर फेंक दिया जाएगा और वहाँ मिल के मजदूरों के लिए घर बनेंगे।
इंद्रदत्ता-राजा साहब ने मंजूर कर लिया? इतनी जल्दी भूल गए। अबकी शहर में रहना मुश्किल हो जाएगा।
इंदु-सरकार का आदेश था, कैसे न मंजूर करते।
इंद्रदत्ता-साहब ने बड़ी दौड़ लगाई। सरकार पर भी मंत्र चला दिया।
इंदु-क्यों, इतनी बड़ी रियासत पर सरकार का अधिकार नहीं करा दिया? एक राजद्रोही राज को अपंग नहीं बना दिया? एक क्रांतिकारी संस्था की जड़ नहीं खोद डाली? सरकार पर इतने एहसान करके यों ही छोड़ देते? चतुर व्यवसायी न हुए, कोई राजा-ठाकुर हुए। सबसे बड़ी बात तो यह है कि कम्पनी ने पच्चीस सैकड़े नफा देकर बोर्ड के अधिकांश सदस्यों को वशीभूत कर लिया।
विनय-राजा साहब को पद-त्याग कर देना चाहिए। इतनी बड़ी जिम्मेदारी सिर पर लेने से तो यह कहीं अच्छा होता।
इंदु-कुछ सोच-समझकर तो स्वीकार किया होगा। सुना, पाँडेपुरवाले अपने घर छोड़ने पर राजी नहीं होते।
इंद्रदत्ता-न होना चाहिए।
सोफिया-जरा चलकर देखना चाहिए, वहाँ क्या हो रहा है। लेकिन कहीं मुझे पापा नजर आ गए, तो? नहीं, मैं न जाऊँगी, तुम्हीं लोग जाओ।
तीनों आदमी पाँड़ेपुर की तरफ चले।

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